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गीत – अकुला रही सारी मही ………

अकुला रही सारी मही
किसको पुकारना है सही ।
इस धरती से बढ़कर कौन?
प्रश्न पर सदा ही रहते सब मौन !!
सोच रही अब वसुंधरा
कैसा कलुषित समय पड़ा
बालक बूढ़े नौजवान
गिरिवर तरुवर आसमान
है आज कोई अपना नही
किसको पुकारना ………
अखंड भारत का सपना
देखा था जब ये अपना
खंडित खंडित बिखर रहा
जन मानस को न अखर रहा
अस्तित्त्व मिट रहा है कहीं
अकुला रही ……………..
खोजने पर भी मिलते नहीं
राम कृष्ण अब दिखते नहीं
मर्यादा मन मे रखते नहीं
मान किसी का करते नहीं
संस्कृति लुट जाए न कहीं
अकुला रही ………….
बांकुरों से हिरण्यगर्भा
आल्हादित रही सर्वदा
नित शंखनाद रण पर्व का
हा ! कौन मान मर्म का
है वो बांका लाल नहीं
अकुला रही सारी मही
किसको पुकारना …………

~ डॉ0 अन्नपूर्णा बाजपेयी आर्या
कानपुर नगर, उत्तर प्रदेश