”कहना मुश्किल है..”

दूर दूर होकर अपनों से रहना मुश्किल है,
कौन बिछड़ जाए किस मोड़ पे, कहना मुश्किल है.
है अशांत सागर क्यों इतना, मंद समीर प्रचंड हुआ.
मृत्यु-कातर हुई दिशाएँ, त्रस्त सगर भूखंड हुआ.
शिव संहारक घड़ी घड़ी हैं, आँखें अविरल झरी झरी हैं.
समय सिन्धु के प्रलय वेग संग, बहना मुश्किल है.
कौन बिछड़ जाए किस मोड पे, कहना मुश्किल है.
फूलों के घर कौन ये घुसकर, जबरन साँसे छीन रहा.
आँगन-आँगन चील उतरकर, सुख के लम्हें बीन रहा.
घोरकर्म कुछ हुआ अवश हो, पुण्य जगत को छोड़ चला.
मर्यादित तटबंधें अपनी, रत्नाकर भी तोड़ चला.
एकाकी कमरे में रहना, सूनेपन की तापें सहना.
पर अकाल सपनों की मौतें, सहना मुश्किल है.
कौन बिछड़ जाए किस मोड पे, कहना मुश्किल है.
अब जो हाहाकार मचा है, याद इसे रखना होगा.
जलवायु में जहर रचा क्यों, याद इसे रखना होगा.
किसकी करनी की भूलों से, कोमल कलियाँ रोएगी.
अन्धकार की यही धरोहर, नव पीढी भी ढोएगी.
जहाँ विरासत अन्धकार हो, आँखों वाले अंधे हों.
डगर डगर पर दुःशासन के, अन्यायों के फंदे हों.
वहाँ प्रकृति के भ्रू प्रहार से बचना मुश्किल है.
कौन बिछड़ जाए किस मोड पे कहना मुश्किल है.

कंचन पाठक
कवियित्री, लेखिका
नई दिल्ली